रात के दो बजे थे। एक अजीब सी नमी हवा में तैर रही थी, आसमान में काले बादल गरज रहे थे। राजस्थान और असम बॉर्डर के बीच स्थित पुराना सिरोही जंगल और उसके बीच से बहती नदी उस समय किसी डरावने सपना जैसी लग रही थी।
कैलाश, शहर में मजदूरी करने वाला एक सीधा-सादा गांव का लड़का था, आज अपनी पुरानी लेकिन मजबूत साइकिल लेकर शहर से अपने गांव लौट रहा था। उसकी जेब में एक छोटा सा तोहफा था और दिल में बेसब्री—आज उसकी और **चंद्रमुखी* की शादी की सालगिरह थी। वो उसे आधी रात को चुपके से सरप्राइज़ देना चाहता था।
रास्ता वीरान था। चारों तरफ अंधेरा और सन्नाटा। बस मोबाइल की टॉर्च और साइकिल की कमजोर हेडलाइट उसके साथी थे।
अचानक मोबाइल बजा—चंद्रमुखी।
कैलाश (हँसते हुए):
“हां रानी, बोलो।”
चंद्रमुखी (घबराई आवाज़ में):
“कहाँ पहुँचे हो? उस नदी के पास तो नहीं हो ना?”
कैलाश:
“बस नदी पार कर लूं, फिर सीधा तुम्हारे पास… तुम्हारी बाहों में।”
चंद्रमुखी (धीरे से):
“कैलाश, प्लीज़ जल्दी आओ, लेकिन नदी के पुल से मत आना।
वहाँ कुछ है। माँ कहती थीं वहाँ एक औरत की आत्मा भटकती है…
उसका नाम माया था… जिसे एक जवान लड़के ने धोखा दिया था।
और उसी पुल से उसने कूदकर जान दे दी।
अब हर साल उस रात वो लड़कों को अपने प्यार के जाल में फँसाकर मौत देती है…”
कैलाश (मुस्कुराकर):
“अरे भाग्यवान, मुझे छोड़ो और अपने लिए तैयार हो जाओ।
आज की रात, मैं तुझे ऐसा तोहफ़ा दूँगा जिसे तुम ज़िंदगी भर नहीं भूल पाओगी।”
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चंद्रमुखी (काँपती आवाज़ में):
“कैलाश, प्लीज़… मज़ाक मत करो… माया नाम भी मत लेना… वो नाम ले लिया तो वो तुम्हारी हो जाएगी…”
कैलाश हँसता रहा। लेकिन जैसे ही उसने कॉल काटा, उसकी हँसी जम गई।
वो अब पुल पर पहुँच चुका था। ठंडी हवा का एक झोंका उसे छूकर निकला, और तभी… उसकी नजर पड़ी।
सफेद साड़ी में एक लड़की… नदी के दूसरी तरफ खड़ी। वो इतनी खूबसूरत थी कि चाँद भी शर्मा जाए। लंबे खुले बाल, गीली पलकों पर नमी, और होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान।
उसके बदन से एक अलग सी गर्माहट उठ रही थी, जो ठंडी हवा में भी उसे छूती हुई लग रही थी।
कैलाश (धीरे से):
“इतनी रात को… तुम यहाँ अकेली?”
लड़की ने धीरे से मुस्कुराकर इशारा किया—“इधर आओ…”**
कैलाश जैसे सम्मोहित हो गया। साइकिल छोड़कर वो उसकी तरफ बढ़ा। लड़की की आँखों में एक नशा था।
कैलाश:
“तुम्हारा नाम…?”
लड़की:
“माया… वही नाम जो मेरी पहचान है।”
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जैसे ही वह पास आई, उसकी सांसें जैसे धीमे-धीमे कैलाश की गर्दन से टकराईं। कैलाश की धड़कनें तेज़ हो गईं। वो माया के बेहद करीब आ गया।
माया ने उसका हाथ पकड़ा और अपनी उंगलियाँ उसकी हथेली पर फिराईं…
माया:
“तुम्हारे हाथ गर्म हैं… लेकिन तुम्हारा दिल?”
कैलाश (साँसें थामकर):
“तुम… तुम क्या चाहती हो?”
माया (धीरे से कान में):
“तुम्हें… सिर्फ आज। बाकी सब कल के नाम…”
उसकी आँखों में कुछ ऐसा था कि कैलाश सब भूल गया—*चंद्रमुखी*, सालगिरह, घर… सबकुछ।
फिर अचानक, माया की आँखें बदलने लगीं। वो गहरे काले रंग की हो गईं। उसकी साँसों से अब फूलों की नहीं, राख की गंध आने लगी।
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कैलाश (घबराकर):
“त…तुम कौन हो?”
माया (धीरे से):
“जिसे तुमने नाम लेकर बुलाया… अब मैं तुम्हारी चंद्रमुखी नहीं, तुम्हारी मौत हूँ…”
कैलाश पीछे हटने की कोशिश करता है, लेकिन अब देर हो चुकी है। माया हवा में तैरने लगी, उसके चेहरे पर शैतानी मुस्कान फैल गई। अचानक तेज़ हवाएँ चलने लगीं, जैसे पूरा जंगल उसके इशारे पर थिरक रहा हो।
माया:
“अब तू कभी लौटेगा नहीं कैलाश…
तेरा नाम अब मेरे नाम के साथ जुड़ गया है।”
कैलाश चीखना चाहता था… पर आवाज़ गले में ही रुक गई।
सुबह, नदी किनारे सिर्फ एक टूटा हुआ गिफ्ट और साइकिल की घंटी मिली।
चंद्रमुखी आज भी हर साल उस पुल पर एक दिया जलाती है… शायद कैलाश लौट आए… या फिर माया उसे छोड़ दे।
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