हार की जीत कहानी (सुदर्शन): Haar Ki Jeet Kahani

“हार की जीत” लेखक सुदर्शन के द्वारा लिखी गई एक कहानी है। इस कहानी में बाबा भारती, उनका घोड़ा सुल्तान और डाकू खड्ग सिंह मुख्य पात्र हैं। कहानी में बाबा भारती अपने स्वभाव से खूंखार डाकू खड्ग सिंह का दिल बदल देते हैं। 

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ये कहानी हार कर भी जीत की सुखद अनुभूति का अहसास करवाती है। ऐसे में अगर आप अपने बच्चों को अच्छी सीख देने वाली कहानियां खोज रहें हैं, तो यह कहानी आप उन्हें पढ़कर सुना सकते हैं…. 

हार की जीत कहानी

गांव के बाहर एक छोटे से मंदिर में बाबा भारती अपने घोड़े सुल्तान के साथ रहा करते थे। सुल्तान एक मोटी कद काठी का घोड़ा था, जिसकी चर्चा पूरे गांव में होती थी। जैसे मां को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर खुशी मिलती है, बाबा भारती को भी अपना घोड़ा देखकर वही खुशी मिलती थी। भगवान की सेवा के बाद उन्हें जो भी समय मिलता उसे वो सुल्तान के साथ बिताते थे। शाम के समय जब तक वो सुल्तान पर सवार होकर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता। 

सुल्तान की कीर्ति से प्रभावित हुआ डाकू खड्गसिंह 

उसी इलाके में खड्गसिंह नाम का एक डाकू भी रहता था। सुल्तान की चर्चा सुनकर उसके दिल में भी उसे देखने की ललक जागी। वह देखना चाहता था कि आखिर उसे घोड़े में ऐसा क्या है?, कि हर कोई उसकी तारीफ कर रहा है। ऐसे में एक दिन वह दोपहर के समय वह बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके उनके पास ही बैठ गया।

बाबा भारती ने पूछा, “खड्गसिंह, क्या हाल है?”। खड्गसिंह ने सिर झुकाकर कहा, “बस आपकी दया है।” 

बाबा भारती ने फिर पूछा, “कहो, इधर कैसे आना हुआ ?” बाबा की बात सुनकर डाकू खड्ग सिंह बोला, “सुलतान की चाह खींच लाई है, मैंने उसकी बहुत तारीफ सुनी है, अगर एक बार उसे देख लूं तो मेरा भी मन शांत हो जाए।” 

यह सुनकर बाबा भारती उसे अपने अस्तबल में ले गए और गर्व से घोड़े को दिखाया, “ विचित्र जानवर है, इसे देखकर तुम्हारा मन बाग–बाग हो जाएगा।” घोड़े को देखकर खड्गसिंह चौंक गया। उसने सैकेड़ों घोड़े देखे थे, परंतु ऐसा बाँका घोड़ा उसने कभी न देखा था। 

मन ही मन वह सोचने लगा, “ ये घोड़ा बाबा के पास नहीं मेरे पास होना चाहिए।” थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह बोला – ” घोड़ा तो सुंदर है, पर इसकी चाल न देखी तो क्या देखा?”। डाकू के मुख से घोड़े की तारीफ सुनकर बाबा का मन गर्व से चौड़ा हो गया, और घोड़ा खोलकर वह उसपर सवार हो गए। 

घोड़े को हवा से बातें करता देख, खड्गसिंह के कलेजे पर सांप लौटने लगे, उसने घोड़े को अपना बनाने का निश्चय कर लिया। उस समय तो वह वहां से चला गया, लेकिन जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”

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डाकू ने बनाई सुल्तान को चोरी करने की योजना 

खड्गसिंह की इस धमकी के बाद बाबा डर गए, उन्हें हर समय डर लगा रहता कि कहीं वह डाकू उनके सुल्तान को उनसे अलग ना कर दे। कई महीने बीत गए, पर खड्ग सिंह नहीं आया। बाबा को लगने लगा कि शायद वह झूठ बोल रहा था। एक दिन शाम के समय जब वो सुल्तान पर सवार होकर घूमने निकले, तो अचानक उन्हें आवाज सुनाई दी, “बाबा, जरा इस कंगले की सुनते जाना।”

बाबा ने घोड़ा रोका तो उन्होंने देखा, की पेड़ की छाया में कराह रहा है। बाबा बोले, “ तुम कौन हो, और तुम्हें क्या कष्ट है?”। 

अपाहिज हाथ जोड़कर बोला, “बाबा, मैं दुर्गादत्त वैद्य का सौतेला भाई हूँ, रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। कृपया करके घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा तुम्हारा भला करेगा।”

अपाहिज की बात सुनकर बाबा को उसपर दया आ गई, वे घोड़े से उतरे और अपाहिज को घोड़े पर बैठा कर लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। थोड़ी दूर चलने के बाद अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठ गया और घोड़े को दौड़ाने लगा। बाबा भारती को समझ आगया कि यह डाकू खड्गसिंह था। 

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बाबा भारती ने सुल्तान को खोया 

बाबा भारती और सुल्तान

बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और फिर चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।” बाबा की आवाज सुनकर खड्गसिंह रुका और घोड़े की गर्दन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”

बाबा करुणामय होकर बोले, “ठीक है, तुम इसे ले जाओ। लेकिन तुमसे प्रार्थना है, कि इसे किसी और को मत देना; नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा और हां इस घटना के बारे में किसी को मत बताना”। 

बाबा की बातें सुनकर खड्गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसे लगा था कि घोड़े को ले जाने के लिए उसे मशक्कत करनी होगी, लेकिन बाबा तो खुद इस घटना को किसी के सामने प्रकट करने से मना कर रहे है, आखिर इसके पीछे क्या कारण है?

काफी देर सोचने के बाद उसने बाबा से ही पूछ लिया, “ क्यों बाबाजी, इसमें आपको क्या डर है?” यह सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को अगर इस घटना के बारे में पता चला तो वे किसी गरीब पर विश्वास न करेंगे। दुनिया से उनका विश्वास उठ जाएगा।” यह कहकर उन्होंने सुलतान से ऐसे मुँह मोड़ा जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही न रहा हो। 

बाबा के जाने के बाद उनके शब्द खड्गसिंह के कानों में गूंजते रहे। वह सोचने लगा, “जिस घोड़े के बिना बाबा रह नहीं सकते थे, जिसकी रखवाली में उन्होंने दिन रात एक कर दिए, आज उसी को वो मुझे सौंप कर चले गए। उनके मन पर सुल्तान से दूर होने से ज्यादा दुख इस बात का था कि कहीं लोग गरीबों पर विश्वास करना न छोड़ दे।”

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खड्गसिंह को हुआ अपनी गलती का अहसास 

डाकू खड्गसिंह को ना जाने क्या हुआ, वह आधी रात को बाबा भारती के मंदिर में पहुँचा। किसी समय बाबा भारती स्वयं वहां लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड्गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और चुपचाप वहां से निकल गया। जाते समय उसकी आंखों से आंसू आ गए। 

रात्रि के चौथे पहर में जब बाबा भारती अपनी झोपड़ी से बाहर आए, और नहा–धो कर अस्तबल की ओर बढ़े तो, उन्हें याद आया कि सुल्तान की खड्गसिंह ले गया है। वह वापस अपनी कुटिया की और जाने लगे, तभी घोड़े ने अपने मालिक की आवाज को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। 

बाबा भारती चौंके और दौड़ते हुए अस्तबल में घुसे। सुल्तान को वहां देखकर वो उसके गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे, मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछ्ड़े बेटे से मिल रहा हो।  वो बार बार उसकी पीठ पर हाथ फेरते और कहते, “अब कोई गरीबों की सहायता से मुँह न मोड़ेगा।”

थोड़ी देर के बाद बाबा ठीक उस जगह आकर खड़े हो गए, जहां खड्गसिंह रोया था। उनके आंसू भी उसी जगह गिरे और दोनों के आँसुओं का उस भूमि की मिट्टी पर परस्पर मेल हो गया।

निष्कर्ष: 

सुदर्शन के द्वारा लिखी गई ये कहानी एक साधु के सरल व्यवहार और डाकू के हृदय परिवर्तन को दर्शाती है। बाबा भारती, जिन्हें अपना घोड़ा जान से भी प्यार था, समाज में विश्वास बनाए रखने के लिए वह उसे डाकू को देने को राजी हो गए। वहीं एक साधु के त्याग को देखकर खूंखार डाकू खड्गसिंह का भी हृदय परिवर्तन हो गया। 

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